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Monday, August 5, 2013

मेरी रूह की आवाज़

आज के ढ़लते हुए सूरज में भी इतनी तेज़ी है
कि उसकी रोशनी से जगमगा गया है रेगिस्तान का कण-कण
बैठें रेत के पहाड़ पर , कोशिश कर रही हूँ
कि समेंट लूँ इस रेत को मुठ्ठी में बन्द कर
पर लाख कोशिश पर भी , वह बैह जाती है
रुकती न मेरे हाँथ में सिमट कर
ठीक उस तरह जिस तरह
यह पल रुकता नहीं , कुछ देर भी,  मेरे लाख चाहने पर |

शान्ति है हर तरफ , दूर-दूर तक है न कोई
बस सरसराती ठंडी हवा , जिसकी थपकियाँ हैं रेत से भरी
छूती हैं वह मुझको और आँखें भर जातीं हैं
सोचती हूँ कि शायद यह तेरा संदेश मुझ तक पहुँचाती हैं |

इस सन्नाटे में भी एक अजीब सा है अपनापन
पहली बार सुनाई पड़ती है तेज़ – मेरी रूह की आवाज़ और खयालों का मंथन
मोह करती हूँ मैं क्यों इन भौतिकतावादी वस्तुओं से
खुशी देंगी मुझे जो ज्यादा से ज्यादा कुछ पल भर
इतना तो समझ जा , ऐ मनुष्य तू क्यों है नासमझ
भाग रहा है तू जिसके पीछे उसका है न कोई अन्त |

एक बार ठहर जा , बैठ जा , एकाग्र से एकांत में
महसूस कर  - हवा की थपकियाँ , यह चाँदनी , यह पहाड़ को
और इस रेत के बीच अजूबे तलाब में पानी के बहाव को |
कमा ले तू जितनी भी दौलत , न आएगी किसी काम की
पलट पाओगे तुम हवा का न रुख पानी के बहाव का
न कर पाओगे तुम रात-दिन , न दिन को रात भी
फ़िर भाग रहे हो तुम क्यों, चीज़ों के पीछे बेकार में
क्योंकि शान्ति मन की ही चाह होती है, अन्त में नर-नारी की इस संसार में ||   

                                                                                                                         -  पूजा कुमार