आज के ढ़लते हुए सूरज में भी इतनी तेज़ी है
कि उसकी रोशनी से जगमगा गया है रेगिस्तान का
कण-कण
बैठें रेत के पहाड़ पर , कोशिश कर रही हूँ
कि समेंट लूँ इस रेत को मुठ्ठी में बन्द कर
पर लाख कोशिश पर भी , वह बैह जाती है
रुकती न मेरे हाँथ में सिमट कर
ठीक उस तरह जिस तरह
यह पल रुकता नहीं , कुछ देर भी, मेरे लाख चाहने पर |
बस सरसराती ठंडी हवा , जिसकी थपकियाँ हैं रेत से
भरी
छूती हैं वह मुझको और आँखें भर जातीं हैं
सोचती हूँ कि शायद यह तेरा संदेश मुझ तक पहुँचाती
हैं |
इस सन्नाटे में भी एक अजीब सा है अपनापन
पहली बार सुनाई पड़ती है तेज़ – मेरी रूह की आवाज़
और खयालों का मंथन
“ मोह करती हूँ मैं
क्यों इन भौतिकतावादी वस्तुओं से
खुशी देंगी मुझे जो ज्यादा से ज्यादा कुछ पल भर ”
इतना तो समझ जा , ऐ मनुष्य तू क्यों है नासमझ
भाग रहा है तू जिसके पीछे उसका है न कोई अन्त |
एक बार ठहर जा , बैठ जा , एकाग्र से एकांत में
महसूस कर
- हवा की थपकियाँ , यह चाँदनी , यह पहाड़ को
और इस रेत के बीच अजूबे तलाब में पानी के बहाव को
|
कमा ले तू जितनी भी दौलत , न आएगी किसी काम की
पलट पाओगे तुम हवा का न रुख पानी के बहाव का
न कर पाओगे तुम रात-दिन , न दिन को रात भी
फ़िर भाग रहे हो तुम क्यों, चीज़ों के पीछे बेकार
में
क्योंकि शान्ति मन की ही चाह होती है, अन्त में
नर-नारी की इस संसार में ||
- पूजा कुमार