खुले आकाश के नीचें बैठकर
देखती हूँ झिलमिलाते तारों की ओर
रात के अंधकार में विलीन हो
गई है जुगनुओं की चमक और झींगुर के शोर
न कोई पशु है न कोई पक्षी
और न दूर-दूर तक कोई इन्सान
बस बहती ठंडी हवा, ख़ामोशी
और शान्ति के साथ खयालों में डूबी , मैं हूँ यहाँ |
इस सन्नाटे में मेरे अशान्त
मन में आतें हैं कई ख्याल
कुछ आज के बिखरे ख़्वाबों की
निराशा जो सिखाती कल के सपने पाने की राह |
सोचती हूँ – परिश्रम करने पर
भी न मिलती मंज़िलें हर बार
जिससे पहले यह मन की हलचल
लेती बूंदों का आकार
देखती हूँ सामने कि तारों
के दिल भी टूटते हैं उस पार
टूटने पर भी बोलते “में
रखता हूँ तुम्हारे ख्वाबों को पूरा करने की चाह”
और देते हैं मुस्कुराने की
वजह बगैर फरियाद इस काली रात ||
सपने बुनते-२ निकल जाती यह छोटी
सी रात
भोर होते - शुरू होती चिड़ियों
के चेह-चहाने की आवाज़
मेघ न जाने खश क्यों है - कल के तारों की वर्षा के
बाद
और पहना देता है हमें
इन्द्रधनुष का हार |
इन्द्रधनुष के रंग भी
निखरते रोशनी के बिखरने के बाद
बिखरोगे नहीं तो कैसे चमकोगे
दूर अम्बर में उस पार |
बादलों के पीछे से पड़ती सूरज की किरणें मेरे मुख पर इस बार
मुस्कुराते अंगडाई लेते देखती
हूँ आकाश की ओर
और बोलता है वह मुझसे यह
बात
“जहाँ तक है मेरी चादर तुम
पर वहाँ तक हूँ मैं तेरे साथ
फिर किस बात से डरते हो तुम
और क्यों होते सपने बिखारने से परेशान
कोशिशों में कमी मत करो, फल
देना है मेरा काम |”
बात यह आती समझ मुझे, रखूँगी गाँठ के यह बांद
“बिखर-२ के ही तो बीज लेते लहराती फ़सलों का आकार
माला भी तो बनती है लेके
बिखरे मोतियों को साथ |”
- पूजा कुमार
All images and writing in this document © Pooja Kumar, 2013.